बुधवार, 5 सितंबर 2012

मेरा पहला गुरू

मां ने
बहुत सरल बहुत प्यारी
बहुत भोली
मां ने
बचपन में
मुझे एक गलत
आदत सिखा दी थी
कि सोने से पहले
एक बार
बीते दिन पर
नजर डालो और
सोचो कि तुमने
दिन भर क्या किया
बुरा या भला
सार्थक या निरर्थक
मां तो चली गई
सुदूर क्षितिज के पार
और बन गई
एक तारा नया
इधर जब रात उतरती है
और नींद की गोली खाकर
जब भी मैं सोने लगता हूं
तो अचानक
एक झटका सा लगता है
और
मैं सोचते बैठ जाता हूं
कि दिन भर मैंने
क्या kiya कि
आज के दिन
मैं कितनी बार मरा
कितनी बार जिया
फिर जिया
इसका हिसाब
बड़ा उलझन भरा है
मेरा वजूद जाने कितनी बार मरा है
यह दिन भी बेकार गया
मैंने देखे
मरीज बहुत
ठीक भी हुए कई
पर नहीं है
यह बात नई
इसी तरह तमाम जिन्दगी गई
जो भी था मन में
जिसे भी माना
मैंने सार्थक
तमाम उम्र भर
वह आज भी नहीं कर पाया मैं
न तो कभी
अपनी मर्जी से जिया
न ही
अपनी मर्जी से मर पाया मैं।


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