बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित राज्यों का पुनर्गठन
भारत विविधताओं वाला देश है जहां विभिन्न धर्म, जाति भाषा एवं विचारधारा वाले लोग निवास करते हैं। इस प्रकार की विभिन्न विचारधारा वाले लोगों को एक साथ खड़ा करके भावी आदर्शों एवं मूल्यों पर एकमत करना एक कठिन कार्य ही नहीं अपितु असम्भव कार्य भी है। ऐसे माहौल में राज्यों का पुनर्गठन एक जटिल समस्या है। फिर भी कुछ प्रान्तों में तेलंगाना, हरित प्रदेश, बुन्देलखण्ड़, गोरखालैण्ड़ एवं विदर्भ इत्यादि के नामों से राज्यों के पुनर्गठन की मांग उठना विकास की किस उत्तरोत्तर प्रगति को प्रदशर््िात करता है? इस प्रश्न पर देश के कर्णधारों का मौन रूप स्वतः ही इसके जटिल परिणामों को प्रतिबिम्बित करता है। देश में पहली बार वर्ष 1956 में राज्यों का पुनर्गठन हुआ था तथा उक्त प्र्रक्रिया अनवरत चलती रही और भारत देश खण्ड़ो में बंटता चला गया। भारतीय संविधान के रचियता डाॅ0 भीमराव अम्बेड़कर ने वर्ष 1956 में प्रकाशित उनके एक निबन्ध ‘‘थाट्स आन लिग्विस्टिक स्टेट्स’’ में सशक्त एवं प्रभावशाली शासन को आधार बनाकर राज्यों के पुनर्गठन की युक्ति का सुझाव दिया था। इस निबन्ध में डाॅ0 भीमराव अम्बेड़कर ने दक्षिणी और उत्तरी राज्यों की क्षेत्रफलीय असमानता को दृष्टिगत रखते हुए छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना को मंजूरी दी थी। उदाहरणस्वरूप उन्होंने उत्तर प्रदेश को तीन बराबर-बराबर भागों जैसे मध्य उत्तर प्रदेश, पश्चिमी प्रदेश एवं पूर्वी प्रदेश के रूप में बांटने का प्रस्ताव किया। उक्त बँटवारे में उन्होंने आबादी और क्षे़त्रफल को पूरा महत्व दिया था । प्रस्तावित राज्यों के प्रमुख शहरों कानपुर, मेरठ और इलाहाबाद को राज्यों की राजधानी बनाने का भी सुझाव दिया था। किन्तु डाॅ0 भीमराव अम्बेड़कर के उक्त विचारों पर अमल करने के बजाय कुछ राज्यों के कर्णधारों ने तत्कालीन सरकार को भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन हेतु विवश कर दिया था। इस प्रकार की आवाजें अभी भी रह-रहकर उठती रहती हैं। दुर्भाग्यवश अब लगभग अर्धशतक के पश्चात कुछ राजनीतिक हस्तियों द्वारा निजी स्वार्थों से ओत प्रोत पूर्व में की गयी गलतियों को उदाहरण स्वरूप पस्तुत करके पुनः नये राज्यों के पुनर्गठन की मांग की जा रही है, जिसे कि उचित ठहराना वर्तमान परिस्थितियों में जायज नहीं लगता। तेलंगाना राज्य के अलगाव आन्दोलन के साथ ही कुछ अन्य छोटे राज्यों के पुनर्गठन की निरथर््ाक मागें भी बढ़ती जा रही हैं। ऐसी मांगें कई बार हिंसक रूप धारण कर लेती हैं, जो देश की एकता व अखण्डता तथा साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए घातक सिद्ध होती हंै। वोट बैंक एवं क्षेत्रवार की राजनीति के चलते राजनैतिक कर्णधार भी ऐसी बातों को हवा देते हैं जो कि देश के लिए घातक हैं। वस्तुतः हमारे देश के राष्ट्र निर्मताओं एवं सच्चे सपूतों ने भारत देश की उत्तरोत्तर प्रगति हेतु जो सकरात्मक कल्पना की थी उसमें भी लोकतन्त्र की नयी क्रान्ति के माध्यम से नये सशक्त समाज की स्थापना, राष्ट्र को अटल एवं मजबूत शक्ति के रूप में उभारना, राष्ट्र की एकता व अखड़ता तथा साम्प्रदायिक सद्भावना को अधिक से अधिक मजबूती प्रदानकरना एवं राष्ट्र की‘‘एकता, लोकतन्त्र और आर्थिक व सामाजिक आदर्शों के मूल्यों को बढ़ावा देना जैसे तत्व शामिल थे, किन्तु इसके विपरीत राज्यों का आधुनिक पुनर्गठन देश की ‘‘ एकता ,लोकतन्त्र और आर्थिक तथा सामाजिक आदर्शो’’ को आघात पहुँचाता है। इन तत्वों का सामूहिक एवं सशक्त संगम भारत को विकसित , सम्पन्न एवं समृद्ध देश की श्रेणी में स्थान दिलाता है। किन्तु राज्यों के पुनर्गठन की ऐसी घटनाओं को देखकर यह प्रतीत होता है कि देशों के कुछ कथित राजनेताओं ने अपनी राजनीतिक महत्वाकाक्षांओं की छद्म पूर्ति हेतु स्वतन्त्रता,समानता एवं आपसी भाईचारे की भावना के साथ-साथ आर्थिक राजनीतिक तथा सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों को तिलांजलि दे दी है। ऐसे में यह अति आवश्यक हो गया है कि राष्ट्र की एकता तथा अखण्ड़ता को सदैव स्थिर रखने के लिये आज की युवा पीढ़ी को भारतीय संविधान में निहित समस्त तत्वों की सम्यक जानकारी देनी चाहिए और उनके सुचारू रूप से अनुपालन करने तथा कराने का मौलिक दायित्व भी सौंपना चाहिए, आखिर वे ही राज्य के कर्णधार हैं।