शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

काला पानी के १०५ साल

काला पानी के 105 साल सेलुलर जेल की 105 वीं वर्षगाँठ पर : क्रान्तिकारियों के बलिदान का साक्षी- सेल्युलर जेलयह तीर्थ महातीर्थों का है.मत कहो इसे काला-पानी.तुम सुनो, यहाँ की धरती केकण-कण से गाथा बलिदानी (गणेश दामोदर सावरकर)भारत का सबसे बड़ा केंद्रशासित प्रदेश अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह सुंदरता का प्रतिमान है और सुंदर दृश्यावली के साथ सभी को आकर्षित करता है। बंगाल की खाड़ी के मध्य प्रकृति के खूबसूरत आगोश में विस्तृत 572 द्वीपों में भले ही मात्र 38 द्वीपों पर जन-जीवन है, पर इसका यही अनछुआपन ही आज इसे प्रकृति के स्वर्ग रूप में परिभाषित करता है। यहीं अंडमान में ही ऐतिहासिक सेलुलर जेल है। सेलुलर जेल का निर्माण कार्य 1896 में आरम्भ हुआ तथा 10 साल बाद 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ। सेलुलर जेल के नाम से प्रसिद्ध इस कारागार में 698 बैरक (सेल) तथा 7 खण्ड थे, जो सात दिशाओं में फैल कर पंखुडीदार फूल की आकृति का एहसास कराते थे। इसके मध्य में बुर्जयुक्त मीनार थी, और हर खण्ड में तीन मंजिलें थीं।1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी सरकार को चैकन्ना कर दिया। व्यापार के बहाने भारत आये अंग्रेजों को भारतीय जनमानस द्वारा यह पहली कड़ी चुनौती थी जिसमें समाज के लगभग सभी वर्ग शामिल थे। जिस अंग्रेजी साम्राज्य के बारे में ब्रिटेन के मजदूर नेता अर्नेस्ट जोंस का दावा था कि-‘‘अंग्रेजी राज्य में सूरज कभी डूबता नहीं और खून कभी सूखता नहीं‘‘, उस दावे पर ग्रहण लगता नजर आया। अंग्रेजों को आभास हो चुका था कि उन्होंने युद्ध अपनी बहादुरी व रणकौशलता की वजह से नहीं बल्कि षडयंत्रों, जासूसों, गद्दारी और कुछेक भारतीय राजाओं के सहयोग से जीता था। अपनी इन कमजोरियों को छुपाने के लिए जहाँ अंग्रेजी इतिहासकारों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सैनिक गदर मात्र कहकर इसके प्रभाव को कम करने की कोशिश की, वहीं इस संग्राम को कुचलने के लिए भारतीयों को असहनीय व अस्मरणीय यातनायें दी गई। एक तरफ लोगों को फांसी दी गयी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया गया व तोपों से बांधकर दागा गया वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी सरकार को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें ऐसी जगह भेजा गया, जहाँ से जीवित वापस आने की बात तो दूर किसी अपने-पराये की खबर तक मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं रख सकते थे और और यही काला पानी था। एक तरफ हमारे धर्म समुद्र पार यात्रा की मनाही करते थे, वहीँ यहाँ मुख्यभूमि से हजार से भी ज्यादा किलोमीटर दूर लाकर देशभक्तों को प्रताड़ित किया जाता था। अंग्रेजी सरकार को लगा था कि सुदूर निर्वासन व यातनाओं के बाद स्वाधीनता सेनानी स्वतः निष्क्रिय व खत्म हो जायेंगे पर यह निर्वासन व यातना भी सेनानियों की गतिविधियों को नहीं रोक पाया। वे तो पहले से ही जान हथेली पर लेकर निकले थे, फिर भय किस बात का। अंग्रेजी हुकूमत ने काला पानी द्वारा इस आग को बुझाने की जबरदस्त कोशिश की पर वह तो चिंगारी से ज्वाला बनकर भड़क उठी। सेलुलर जेल, अण्डमान में कैद क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों ने जमकर जुल्म ढाये पर जुल्म से निकली हर चीख ने भारत माँ की आजादी के इरादों को और बुलंद किया।क्रान्तिकारियों का मनोबल तोड़ने और उनके उत्पीड़न हेतु सेल्यूलर जेल में तमाम रास्ते अख्तियार किये गये। स्वाधीनता सेनानियों और क्रातिकारियों को राजनैतिक बंदी मानने की बजाय उन्हें एक सामान्य कैदी माना गया। यही कारण था कि क्रांतिकारियों को यहीं सेलुलर जेल की काल-कोठरियों में कैद रखा गया और यातनाएं दी गईं। यातना भरा काम और पूरा न करने पर कठोर दंड दिया जाता था। पशुतुल्य भोजन व्यवस्था, जंग या काई लगे टूटे-फूटे लोहे के बर्तनों में गन्दा भोजन, जिसमें कीड़े-मकोड़े होते, पीने के लिए बस दिन भर दो डिब्बा गन्दा पानी, पेशाब-शौच तक पर बंदिशें कि एक बर्तन से ज्यादा नहीं हो सकती। ऐसे में किन परिस्थितियों में इन देश-भक्त क्रांतिकारियों ने यातनाएं सहकर आजादी की अलख जगाई, वह सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सेलुलर जेल में बंदियों को प्रतिदिन कोल्हू (घानी) में बैल की भाँति घूम-घूम कर 20 पौंड नारियल का तेल निकालना पड़ता था। इसके अलावा प्रतिदिन 30 पौंड नारियल की जटा कूटने का भी कार्य करना होता। काम पूरा न होने पर बेंतों की मार पड़ती और टाट का घुटन्ना और बनियान पहनने को दिए जाते, जिससे पूरा बदन रगड़ खाकर और भी चोटिल हो जाता। अंग्रेजों की जबरदस्ती नाराजगी पर नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते। जब भी किसी को फांसी दी जाती तो क्रांतिकारी बंदियों में दहशत पैदा करने के लिए तीसरी मंजिल पर बने गुम्बद से घंटा बजाया जाता, जिसकी आवाज 8 मील की परिधि तक सुनाई देती थी। भय पैदा करने के लिए क्रांतिकारी बंदियों को फांसी के लिए ले जाते हुए व्यक्ति को और फांसी पर लटकते देखने के लिए विवश किया जाता था। वीर सावरकर को तो जान-बूझकर फांसी-घर के सामने वाले कमरे में ही रखा गया था। गौरतलब है कि सावरकर जी के एक भाई भी काला-पानी की यहाँ सजा काट रहे थे, पर तीन सालों तक उन्हें एक-दूसरे के बारे में पता तक नहीं चला। इससे समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने यहाँ क्रांतिकारियों को कितना एकाकी बनाकर रखा था। फांसी के बाद मृत शरीर को समुद्र में फेंक दिया जाता था। अंग्रेजों के दमन का यह एक काला अध्याय था, जिसके बारे में सोचकर अभी भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।सेल्यूलर जेल आजादी का एक ऐसा पवित्र तीर्थस्थल बन चुका है, जिसके बिना आजादी की हर इबारत अधूरी है। इसके प्रांगन में रोज शाम को लाइट-साउंड प्रोग्राम उन दिनों की यादों को ताजा करता है, जब हमारे वीरों ने काला पानी की सजा काटते हुए भी देश-भक्ति का जज्बा नहीं छोड़ा। गन्दगी और सीलन के बीच समुद्री हवाएं और उस पर से अंग्रेजों के दनादन बरसते कोड़े मानव-शरीर को काट डालती थीं। पर इन सबके बीच से ही हमारी आजादी का जज्बा निकला। पर इस इतिहास को वर्तमान से जोड़ने की जरूरत है। सेलुलर जेल अपने अंदर जुल्मों की निशानी के साथ-साथ वीरता, अदम्य साहस, प्रतिरोध, बलिदान व त्याग की जिस गाथा को समेटे हुए है, उसे आज की युवा पीढ़ी के अंदर भी संचारित करने की आवश्यकता है। सेलुलर जेल की खिड़कियों से अभी भी जुल्म की दास्तां झलकती है। ऐसा लगता है मानो अभी फफक कर इसकी दीवालें रो पड़ेंगी।वाकई आज देश के हरेक व्यक्ति विशेषकर बच्चों को सेल्युलर जेल के दर्शन करने चाहिए ताकि आजादी की कीमत का अहसास उन्हें भी हो सके। देशभक्ति के जज्बे से भरे देशभक्तों ने सेल्युलर जेल की दीवारों पर अपने शब्द चित्र भी अंकित किये हैं। दूर-दूर से लोग इस पावन स्थल पर आजादी के दीवानों का स्मरण कर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं व इतिहास के गर्त में झांककर उन पलों को महसूस करते हैं जिनकी बदौलत आज हम आजादी के माहौल में सांस ले रहे हैं। बदलते वक्त के साथ सेल्युलर जेल इतिहास की चीज भले ही बन गया हो पर क्रान्तिकारियों के संघर्ष, बलिदान एवं यातनाओं का साक्षी यह स्थल हमेशा याद दिलाता रहेगा कि स्वतंत्रता यूँ ही नहीं मिली है, बल्कि इसके पीछे क्रान्तिकारियों के संघर्ष, त्याग व बलिदान की गाथा है।आज सेलुलर जेल की गाथा को लोगों तक पहुँचाने के लिए तमाम श्रव्य-दृश्य साधनों का उपयोग किया जा रहा है, पर इसे लोगों की भावनाओं व जज्बातों से भी जोड़ने की जरूरत है। 10 मार्च 2011 को सेलुलर जेल अपनी स्थापना के 105 वर्ष पूरे कर रहा है और इसी के साथ इसके वैचारिक विस्तार की भी आवश्यकता है ताकि देश के अन्य भागों में भी उस भावना को प्रवाहित किया जा सके, जिस हेतु हमारे सेनानियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। आजादी का यह तीर्थ किसी मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च से कम नहीं। यह हमारी वो विरासत है जो सदियों तक आजादी की उस कीमत का अहसास कराती रहेगी, जिसके लिए बलिदानियों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। कल सेलुलर जेल की 105 वीं वर्षगाँठ पर उन सभी नाम-अनाम शहीदों और कैद में रहकर आजादी का बिगुल बजाने वालों को नमन !!कृष्ण कुमार यादव KK Yadav पर

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

अप्रैल फूल

अप्रैल फूल (ना समझी से बचने का दिन )

अप्रैल की पहली तारीख को लोग गोपनीय रूप से मूर्ख बनाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं और लोग अज्ञानता वश अपने भोलेपन तथा लालच एवं दबाव में आने के कारण सामूहिक हंसी का पात्र बन जाते हैं। जबकि सभी लोग यह भली भांति जानते हैं कि ना समझी अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसका निदान हम अपने में समझदारी का विकास कर उत्तम तरीके से कर सकते हैं। वैसे तो अप्रैल फूल के बारे में कई किवदंतियाँ प्रचलित हैं जिनका उल्लेख विभिन्न साहित्यक पुस्तकों में रोचक तरीके से किया गया है। इन प्रचलित किवदंतियों में से बहुत पुरानी किवदन्ती का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है।
उक्त कहानी एथेंस नामक शहर से जुड़ी हुई है जहाँ अप्रैल माह की पहली तारीख को एक हस्यास्पद घटना को नासमझ व्यक्ति को मूर्ख बनाने के लिए अंजाम दिया गया। एथेंस नामक नगर में चार मित्र रहते थे उनमें से एक मित्र अपने को सभी से अधिक बुद्धिमान समझता था उस पर प्रत्येक क्षण सभी के समक्ष अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने का ही जुनून सवार रहता था। एक दिन उसने अपने मित्रों से कहा किमैं सब कुछ जानता हूँ। मुझसे किसी भी विषय पर पूछ सकते हो
बगिया पर पूछ या बाग पर पूछ।
हवा पर पूछ या आग पर पूछ।।
ताल पर पूछ या तड़ाग पर पूछ।
चिडि़या पर पूछ या चिराग पर पूछ।।
काशी पर पूछ या प्रयाग पर पूछ।
फूल पर पूछ या पराग पर पूछ।।
अजगर पर पूछ या नाग पर पूछ।
सब्जी पर पूछ या साग पर पूछ।।
धब्बे पर पूछ या दाग पर पूछ।
साबुन पर पूछ या झाग पर पूछ।।
गानें पर पूछ या राग पर पूछ।
होली पर पूछ या फाग पर पूछ।।
शादी पर पूछ या सुहाग पर पूछ।
गुणा पर पूछ या भाग पर पूछ।।
यदि मैं उत्तर दे पाया
तो जैसी चाहे वैसी मुड़ा मेरी मूँछ।।

उसके तीनों मित्रों ने यह तय किया कि ऐसे अहंकार युक्त ज्ञानी को सबक सिखाना ही पड़ेगा। तीनों ने उसे अपने पूर्ण विश्वास में लिया और बनायी गयी योजना के अनुसार भेद खोला कि उन तीनों के सपने में माँ दुर्गा ने बताया है कि वे अपै्रल की पहली रात को ऊँचे पर्वत की चोटी पर अपनी दिव्य ज्योति प्रकट करेंगीं जो उस दिव्य ज्योति का प्रथम दर्शन करेगा वह दिन का महान ज्ञानी हो जायेगा। अहंकार युक्त ज्ञानी मित्रों की बातों में गया और पर्वत की चोटी पर दिव्य ज्योति के दर्षन के लिये पहुँच गया। उधर मित्रों ने षहर के समस्त वासियों को अज्ञानी का मूर्खता से भरा तमाशा देखने के लिए एकत्रित कर लिया।

समय का अनुसरण करते हुए सूर्य ने चादर ओढ़ी, संध्या के पश्चात रात्रि अपने पूर्ण यौवन पर पहुँची, चन्द्र देव अपने पूरे दल बल सहित आये और समस्त तारों को यथा स्थान तैनात किया पवन ने अपनी मस्ती में पेड़ों को भी खूब झुमाया। नदी और झरनों का जल भी बिना कोई बुद्धि लगाये ही अनवरत अबिरल गति से कर्ण प्रिय स्वरों में गुनगुनाता हुआ अपनी मंजिल की ओर बढ़ता रहा किन्तु वह अज्ञानी दिव्य ज्योति के प्रथम दर्षन की आष लगाये भोर तक बैठा रहा और पौ फटने के साथ ही वह अपने मित्रों पर नेत्रों से ज्वाला बरसाते हुए फट पड़ा। तीनों मित्रों के साथ सारा शहर उस अज्ञानी पर मुक्त कण्ठ से ठहाके लगा-लगाकर खूब हँसा और वह अहंकार युक्त अज्ञानी महामूर्ख की पदवी से नवाज कर पहली बार अपै्रल फूल बनाया गया।
भारतीय पण्डों को जो धर्म के नाम पर लोगों को लूटते और ढ़गते रहतें थे उन्हें भी सबक सिखाने के उद्देष्य से साहित्यविद् भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी के द्वारा पहली अपै्रल को मूर्ख बनाने के कई रोचक प्रसंग भी सुने गये हैं। इस युक्ति का प्रयोग तत्कालीन कवियों द्वारा जन समूह को अपनी रचनायें सुनाने में भी किया गया। आज के दौर में पहली अपै्रल को अपै्रल फूल बनाने की पाश्चात्य सभ्यता हमारे भारतीय परिवेश में इस तरह रच बस गयी कि लोग मौके का फायदा उठाकर श्व्यम को श्रेष्ठ और दूसरों को मूर्ख बनाने की प्रवृत्ति में लिप्त होने लगे हैं। यह पश्च्यात प्रवृत्ति जहाँ तथाकथित अज्ञानियों का मनोरंजन करती है वहीँ हमारी भारतीय संस्कृति पर एक कुठाराघात भी साबित होती है जो पीडि़त में निराशावादी विचारों को जन्म देती है।
इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण गलतियों से बचने के लिए किसी गीतकार द्वारा सचेत करने के प्रयोजन से ही निम्न पंक्तियों की रचना को जन्म दिया

समझ समझकर
समझ को समझो
समझ समझना भी एक समझ है।
समझ समझकर भी जो समझे
मेरी समझ में वो नासमझ है।

इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है।

समझ समझ करके इतना समझें
समझ समझने में ही समझदारी।
समझ समझ करके भी यदि समझें
समझ लो नासमझी से है पक्की यारी।।
भारतीय परिवेश में अपै्रल बहुत महत्वपूर्ण माह है। इस माह जहाँ भारतीय नव वर्श प्रारम्भ होता है वहीँ अपै्रल की प्रथम तारीख को ही व्यापारिक वर्गों तथा वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों का नव आर्थिक वर्ष भी प्रारम्भ होता है। विगत वर्श के समस्त लेखे,बहियां आदि संजोकर अलग रख दी जाती हैं तथा नये बही-खाते आकर्षक रूपों में तैयार करके नये बजट एवं नयी योजनाओं के साथ सतर्क समझदारी बरतते हुए विकास के पथ पर अग्रसर रहने के लिए शुरू किये जाते हैं। अर्थात मुक्तकण्ठ से सहर्ष कहा जा सकता है कि पहली अपै्रल कोई मूर्ख बनाने का नही बल्कि सतर्क रहते हुए नासमझी से बचने का दिन है अथवा वर्ष भर के लिए को मानसिक तथा शारीरिक रूप से इतना सस्कत बनाने का दिन है जिससे दैनिक कार्यविधियों, क्रियाकलापों एवं कार्यप्रणाली में समुचित तथा सुव्यवस्थित रूप से सम्पूर्ण कार्यक्षमता का भरपूर प्रयोग किया जा सके।