सोमवार, 19 अक्टूबर 2009

ताश का नशा

ताश का नशा

पत्ता फेंटत कर घिसा मिला न धन का ढेर ,

अबकी आए "लोभ" में बैठे रहे मुडेर ।

बैठे रहे मुडेर नही कुछ खाना पीना ,

चाहे छूटे घरद्वार चाहे रूठे "मीना "।

अपना ही हित सोंच लगायें नित नित बाजी,

चटखारे ले-लेकर करें हर बाजी ताजी।

खेलत - खेलत यदि कोई आ जाता व्यवधान ,

"Bharti " एक साथ मिल हो जाते "कर -चितवन" संधान ।

5 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

पत्ता फेंटत कर घिसा मिला न धन का ढेर ,

अबकी आए "लोभ" में बैठे रहे मुडेर
....aur phir yahi haal...main loot gaya ram duhaayi.....hahaha,bahut hi badhiyaa

रचना दीक्षित ने कहा…

bharti ji mere blog par ane ke liye dhnyavad.aapki kavita bhavon ki sashakt abhivyakti hai
badhai svikaren
rachana dixit

शरद कुमार ने कहा…

Bahut sargarbhit hai. agli rachna ke intzar me......

alka mishra ने कहा…

कितने जुआरियों को पकड़ा आज तक आपने ?

संजय भास्‍कर ने कहा…

bharti ji mere blog par bhi kabhi-2 darshan do...