पर्यावरण हमारे आस-पास तथा चारों ओर फैले ऐसे वातावरण का सूचक है जिसमें विभिन्न प्रकार के जैविक तथा अजैविक घटक शामिल हैं। यद्यपि पर्यावरण का संबन्ध जल में तथा थल पर बसने और जीवन यापन करने वाले हर प्राणी एवं जीव जन्तु से पूर्ण रूप से है किन्तु पर्यावरण का हमारे अर्थात मानव जीवन से गहरा एवं अटूट संबन्ध है, क्योंकि पर्यावरण के मुख्य घटक ही मानव जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक एवं अति अपेक्षित है। प्रकृति ने हमें जल,वायु,आकाश,प्रकाश,भूमि और वन सम्पदा तथा वनस्पति आदि विशुद्ध रूप से प्रदान किये हैं और इन समस्त अमृत-सम्पदाओं का समान वितरण भी बिना किसी भेदभाव के किया है। प्रकृति द्वारा यह प्रक्रिया ‘‘पर्यावरणीय सन्तुलन’’ बनाने के लिए अपनायी गयी है।
पर्यावरण को चार प्रमुख क्षेत्रों में बांटा गया है-पर्यावरण अभियान्त्रिकी, पर्यावरण स्वास्थ्य,श्रोतों का उपयोग और व्यवस्था प्रबन्ध तथा सामाजिक परिस्थितियां। आज पर्यावरण के इन समस्त क्षेत्रों में व्यापक प्रदूषण फैल चुका है तथा इसकी जडें़ निरन्तर गहरायी तक बढ़ती जा रही हैं। फलस्वरूप वर्तमान परिस्तिथियों में पूरा ब्रह्माण्ड़ षान्ति और आनन्द के बजाय अशांति और षोक के प्रांगण में अपना जीवन ब्याधि तथा तनाव में बिता रहा है। आज बढ़ती जनसंख्या का दुष्प्रभाव,औद्यौगिक क्रान्ति का उग्र रूप,प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग तथा मानवीय अदूरदर्शित पूर्ण कार्य-प्रवृति से जल,थल तथा वायु तत्वों के निरन्तर दोहन से ही आधुनिक पर्यावरण लगातार असन्तुलित तथा आन्दोलित होता जा रहा है।
पर्यावरण प्रदूषण वैसे तो कई कारकों का सामूहिक प्रतिफल होता है तथा इसके भिन्न-भिन्न प्रकार पहचाने गये हैं। पर्यावरण प्रदूषण को अनेक रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे प्रदूषण का स्वरूप ,श्रोत ,साधन एवं अवस्थिति इत्यादि। व्यवहारिक रूप से पर्यावरण प्रदूषण को दो भागों में बाटा जा सकता है, प्रकृति जन्य तथा मानव जन्य । मानव जन्य प्रदूषण के अ्रन्तर्गत मानवीय गतिविधियाँ ,दूषित क्रियाकलापों का परिणाम जैसे कृषीय,औधोगिक ,तापीय प्रदूषण तथा सामाजिक अथवा सांस्कृतिक प्रदूषण आदि । प्रकृति जन्य प्रदूषण की श्रेणी में जल,स्थल तथा वायु प्रदूषण को शामिल किया जाता है।
सामान्य स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण को दो भागों में बांटा गया है-प्रत्यक्ष प्रदूषण और अप्रत्यक्ष प्रदूषण। प्रत्यक्ष प्रदूषण के अन्तर्गत औधोगिक चिमनियों, कल-कारखानों, परिवहन साधनों ,आवासीय भवनों तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के जलाने से निकलने वाले धुएं को शामिल किया जाता है। आवासीय भवनों से निष्काषित मल,तथा अपशिष्ट पदार्थ कारखानों से निकलने वाले हानिकारक रासायनिक पदार्थ व प्रदूषित जल,ग्रामीण स्तर पर एकत्रित कूड़ा-करकट,रासायनिक खादें, मानव तथा पशु-पक्षियों का मल-मू़त्र तथा शवों को भी प्रत्यक्ष प्रदूषण की श्रेंणी में शामिल किया जाता है क्योंकि इन सभी का प्रभाव जीवमण्डल पर सीधे पड़ कर प्रत्यक्ष रूप से हानि पहुंचाता है।
अप्रत्यक्ष प्रदूषण एक ऐसा प्रदूषण है जो अपना प्रभाव जीवमण्डल पर सीधे न डाल कर अप्रत्यक्ष रूप से डालता है। अप्रत्यक्ष प्रदूषण में समस्त कीटनाशक पदार्थों , खरपतवार नाशकों, कवकनाशकों ,रेड़ियोधर्मी पदाथों अन्य प्रकार के विषैले रसायनों तथा मशीनों एवं परिवहन वाहनों का शोर आदि शामिल हैं। आधुनिक परिवेश में अपराध तथा भ्रष्टाचार से लिप्त सामाज विरोधी तत्वों के आचरण और कृत्यों को सामाजिक प्रदूषण की अप्रत्यक्ष श्रेणी में लिया गया है।
प्रदूषण के कारण जल में भारी मात्रा में मौजूद भारी धातुएं, फलोराइड ,कीट नाशी रसायनों, नाइट्रेट,आर्सेनिक तथा दूसरे कार्बनिक यौगिक मिल जाते हैं। ऐसे जल के गहण करने से जीवमण्डल पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव पड़ता है। प्रदूशित जल में जीवाणुओं तथा प्रोटोजोआ के कारण मानव जीवन अतिसार पेचिश,हैजा तथा अन्य प्रकार की वाइरस युक्त गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। वैसे तो प्रकृति द्वारा वातावरण को शुद्ध रखने के लिए जंगलों एवं अन्य वनस्पतियों की रचना की गयी किन्तु आवासीय समस्याओं के निदान हेतु निरन्तर जंगलों का कटान तथा औद्यौगिक क्रान्ति के कारण बढ़ते कारखानों से उत्सर्जित धुएं के साथ विभिन्न प्रकार की गैसें वायुमण्डल में मिल कर वायु को विषयुक्तकर रहीं हैं। परिणामस्वरूप वायुमण्डल में जैविक, भौतिक तथा रासायनिक गुणों में भयंकर रूप से अवांक्षित बदलाव आने लगा है। ऐसे अनवरत बदलाव से जीवमण्डल के साथ-साथ जैवमण्डल भी प्रभावित हुआ है। वायु प्रदूषण से वनस्पतियों ,पशु-पक्षियों तथा मानव जीवन पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। वायु प्रदूषण के भयंकर प्रभाव से विश्व की बड़ी-बड़ी इमारतें तथा जलाशय तक अछूते नही रहे। क्लोरोफलोरो-कार्बनिक युक्त वायु ओजोन परत को निरन्तर क्षतिग्रस्त कर रही है। कभी-कभी वायु प्रदूषण का विध्वसंक प्रकोप अम्ल वर्षाका रूप धारण कर लेता है।
प्रकृति के अमूल्य अंश मिट्टी को जीवंतता की श्रेणी में लिया जाता है क्योंकि यह निर्जीव नही है। मिट्टी में असंख्य सूक्ष्म जीवों का वास होता है जो अपनी सामथ्र्यता के अनुसार मिट्टी में शामिल होने वाले समस्त अपशिष्ट पदार्थों का चक्रिय अपघटन करके व्याप्त प्रदूषण को कम करते हुए मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाते रहते हैं, किन्तु जल प्रदूषण तथा वायु प्रदूषण के बढ़ते प्रभाव के कारण मिट्टी में भी प्रदूषण फैलता जा रहा है। मिट्टी मे फैले प्रदूषण को मृदा प्रदूषण की संज्ञा दी गयी है। मृदा प्रदूषण के कारण मिट्टी मृत हो जाती है जिसे बंजर भूमि भी कहा जा सकता है। मृदा प्रदूषण से मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बहुत ही कमजोर हो जाती है।
आधुनिक औद्यौगिक प्रक्रियाओं में उत्पादन तथा संचयन हेतु जल का उपयोग शीतलन कूलिंग के रूप में किया जाता है । शीतलन के कारण यह जल उश्मायुक्त होकर अत्यधिक गर्म रूप धारण कर लेता है और तालाब, नदी तथा समुद्र में फैलकर जालतंत्र के ताप को बिकराल रूप में बढ़ा देता है । परिणामस्वरूप जल के सामान्य ताप में अवांक्षनीय वृद्धि होने के कारण जलीय वनस्पतियों तथा जीव-जन्तुओं की जैविक क्रियाएँ बुरी तरह प्रभावित हो जाती हैं। इस प्रकार के तापीय प्रदूषण के कारण बाढ़,सूखा,तथा अकाल जैसे प्राकृतिक प्रकोपों में बढ़ोतरी होती है। समुद्री जल-स्तर में निरन्तर वृद्धि हो सकती है तथा ताप के निरन्तर प्रभाव से हिमनद पिघल सकते हैं जिससे जीव तथा धन सम्पदा को अपार क्षति पहुँच सकती है। तापीय प्रदूषण से जलवायु परिवर्तन की संभावनायें काफी बढ़ जाती है जिससे कृषि उत्पादन पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है।
ध्वनि हवा के माध्यम से तरंगों के रूप में निरन्तर चलायमान रहती है इसकी मन्द गति तो कर्ण-प्रिय होती है किन्तु ध्वनि की तीव्र कम्पन्नता हमारे स्वास्थ्य को हानिकारक रूप से प्रभावित करती है। ध्वनि तीव्रता की मानक इकाई ‘‘डेसीबल’’ होती है। प्रकृति ने मानवीय कर्ण के लिए ध्वनि सुगमतापूर्वक ग्रहण करने की एक निश्चित सीमा निर्धारित की है। इस निर्धारित सीमा से अधिक तीव्र ध्वनि को शोर की संज्ञा दी जाती है। ऐसी ध्वनि का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सामान्य तौर पर 120 डेसीबल तक की ध्वनि तीव्रता मानव कानों द्वारा सहन की जा सकती है, किन्तु इससे तेज आवाज कष्टप्रद हो जाती है। यह ध्वनि तीव्रता मानवीय स्नायु तन्त्र को प्रभावित करके अनिद्रा ,बहरापन तथा रक्तचाप इत्यादि रोगों से ग्रसित कर देती है। स्नायुविक रोगों से ग्रस्त होने के कारण मानसिक मन्दता संबन्धी प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिलता है।
कभी भारत सोने की चिड़िया और स्वर्ग का धरातल कहलाने वाला तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड़ में आन्नद और shaanti का स्थल था, किन्तु आज सषक्त प्रदूषण के कारण जल, थल और नभ का हर प्राणी shook एवं अषान्ति में जीवन व्यतीत कर रहा है। आज मानव अपने कर्मो में सुधार न लाकर प्रदूषण के कुप्रभावों से ग्रसित होकर एक दूसरे को doshi ठहरा रहा है या फिर उसे ‘‘दैवीय प्रकोप’’ मान कर अपनी सहन क्षमता स्वतः ही बढ़ाता जा रहा है।
आज पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने के लिए कई संस्थायें आगे आयी है। पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने के उद्देष्य से प्रत्येक Varsh माह जून की पांच तारीख को पूरे संसार में ‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’ मनाया जाता है। इस तारीख को विष्व के समस्त desh पर्यावरणीय प्रदूषण को कम करने के लिए पर्यावरण shikchhaa संबन्धी कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। ये आयोजन pradarshaniyon ,नुक्कड़ नाटकों,पद यात्राओं ,जन सभाओं,सेमिनारों लोक नृत्यों आदि के रूप में किये जाते हैं। विद्यालय स्तर पर छात्रों के लिए पोस्टर प्रतियोगिताएं/चित्रकला/वाद-विवाद/निबन्ध प्रतियोगिताएं तथा सकारात्मक प्रायोगिक कार्यषालाओं का भी आयोजन किया जाता है। भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मन्त्रालय के अन्र्तगत स्वतन्त्र रूप से कार्यरत पर्यावरण विभाग द्वारा विभिन्न puraskaaron का भी प्राविधान रखा गया है ,ताकि उक्त आयोजनों एवं पुरस्कारों से षिक्षा लेकर एवं सुपरिणामों से प्रेरित होकर समाज पर्यावरण के प्रति सजग रहे और ब्रह्माण्ड़ में फैलते प्रदूषण को उत्तरोतर रूप से घटाने में अपना अमूल्य सहयोग दे सके , फलस्वरूप समाज समस्त pradooshanon से मुक्त होकर स्वस्थ रूप धारण कर एक सषक्त एव जन कल्याणकारी वातावरण में जीवन व्यतीत करता हुआ स्वस्थ पर्यावरणीय समाज की संज्ञा से नवाजा जा सके।
पर्यावरण को चार प्रमुख क्षेत्रों में बांटा गया है-पर्यावरण अभियान्त्रिकी, पर्यावरण स्वास्थ्य,श्रोतों का उपयोग और व्यवस्था प्रबन्ध तथा सामाजिक परिस्थितियां। आज पर्यावरण के इन समस्त क्षेत्रों में व्यापक प्रदूषण फैल चुका है तथा इसकी जडें़ निरन्तर गहरायी तक बढ़ती जा रही हैं। फलस्वरूप वर्तमान परिस्तिथियों में पूरा ब्रह्माण्ड़ षान्ति और आनन्द के बजाय अशांति और षोक के प्रांगण में अपना जीवन ब्याधि तथा तनाव में बिता रहा है। आज बढ़ती जनसंख्या का दुष्प्रभाव,औद्यौगिक क्रान्ति का उग्र रूप,प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग तथा मानवीय अदूरदर्शित पूर्ण कार्य-प्रवृति से जल,थल तथा वायु तत्वों के निरन्तर दोहन से ही आधुनिक पर्यावरण लगातार असन्तुलित तथा आन्दोलित होता जा रहा है।
पर्यावरण प्रदूषण वैसे तो कई कारकों का सामूहिक प्रतिफल होता है तथा इसके भिन्न-भिन्न प्रकार पहचाने गये हैं। पर्यावरण प्रदूषण को अनेक रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे प्रदूषण का स्वरूप ,श्रोत ,साधन एवं अवस्थिति इत्यादि। व्यवहारिक रूप से पर्यावरण प्रदूषण को दो भागों में बाटा जा सकता है, प्रकृति जन्य तथा मानव जन्य । मानव जन्य प्रदूषण के अ्रन्तर्गत मानवीय गतिविधियाँ ,दूषित क्रियाकलापों का परिणाम जैसे कृषीय,औधोगिक ,तापीय प्रदूषण तथा सामाजिक अथवा सांस्कृतिक प्रदूषण आदि । प्रकृति जन्य प्रदूषण की श्रेणी में जल,स्थल तथा वायु प्रदूषण को शामिल किया जाता है।
सामान्य स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण को दो भागों में बांटा गया है-प्रत्यक्ष प्रदूषण और अप्रत्यक्ष प्रदूषण। प्रत्यक्ष प्रदूषण के अन्तर्गत औधोगिक चिमनियों, कल-कारखानों, परिवहन साधनों ,आवासीय भवनों तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के जलाने से निकलने वाले धुएं को शामिल किया जाता है। आवासीय भवनों से निष्काषित मल,तथा अपशिष्ट पदार्थ कारखानों से निकलने वाले हानिकारक रासायनिक पदार्थ व प्रदूषित जल,ग्रामीण स्तर पर एकत्रित कूड़ा-करकट,रासायनिक खादें, मानव तथा पशु-पक्षियों का मल-मू़त्र तथा शवों को भी प्रत्यक्ष प्रदूषण की श्रेंणी में शामिल किया जाता है क्योंकि इन सभी का प्रभाव जीवमण्डल पर सीधे पड़ कर प्रत्यक्ष रूप से हानि पहुंचाता है।
अप्रत्यक्ष प्रदूषण एक ऐसा प्रदूषण है जो अपना प्रभाव जीवमण्डल पर सीधे न डाल कर अप्रत्यक्ष रूप से डालता है। अप्रत्यक्ष प्रदूषण में समस्त कीटनाशक पदार्थों , खरपतवार नाशकों, कवकनाशकों ,रेड़ियोधर्मी पदाथों अन्य प्रकार के विषैले रसायनों तथा मशीनों एवं परिवहन वाहनों का शोर आदि शामिल हैं। आधुनिक परिवेश में अपराध तथा भ्रष्टाचार से लिप्त सामाज विरोधी तत्वों के आचरण और कृत्यों को सामाजिक प्रदूषण की अप्रत्यक्ष श्रेणी में लिया गया है।
प्रदूषण के कारण जल में भारी मात्रा में मौजूद भारी धातुएं, फलोराइड ,कीट नाशी रसायनों, नाइट्रेट,आर्सेनिक तथा दूसरे कार्बनिक यौगिक मिल जाते हैं। ऐसे जल के गहण करने से जीवमण्डल पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव पड़ता है। प्रदूशित जल में जीवाणुओं तथा प्रोटोजोआ के कारण मानव जीवन अतिसार पेचिश,हैजा तथा अन्य प्रकार की वाइरस युक्त गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। वैसे तो प्रकृति द्वारा वातावरण को शुद्ध रखने के लिए जंगलों एवं अन्य वनस्पतियों की रचना की गयी किन्तु आवासीय समस्याओं के निदान हेतु निरन्तर जंगलों का कटान तथा औद्यौगिक क्रान्ति के कारण बढ़ते कारखानों से उत्सर्जित धुएं के साथ विभिन्न प्रकार की गैसें वायुमण्डल में मिल कर वायु को विषयुक्तकर रहीं हैं। परिणामस्वरूप वायुमण्डल में जैविक, भौतिक तथा रासायनिक गुणों में भयंकर रूप से अवांक्षित बदलाव आने लगा है। ऐसे अनवरत बदलाव से जीवमण्डल के साथ-साथ जैवमण्डल भी प्रभावित हुआ है। वायु प्रदूषण से वनस्पतियों ,पशु-पक्षियों तथा मानव जीवन पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। वायु प्रदूषण के भयंकर प्रभाव से विश्व की बड़ी-बड़ी इमारतें तथा जलाशय तक अछूते नही रहे। क्लोरोफलोरो-कार्बनिक युक्त वायु ओजोन परत को निरन्तर क्षतिग्रस्त कर रही है। कभी-कभी वायु प्रदूषण का विध्वसंक प्रकोप अम्ल वर्षाका रूप धारण कर लेता है।
प्रकृति के अमूल्य अंश मिट्टी को जीवंतता की श्रेणी में लिया जाता है क्योंकि यह निर्जीव नही है। मिट्टी में असंख्य सूक्ष्म जीवों का वास होता है जो अपनी सामथ्र्यता के अनुसार मिट्टी में शामिल होने वाले समस्त अपशिष्ट पदार्थों का चक्रिय अपघटन करके व्याप्त प्रदूषण को कम करते हुए मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाते रहते हैं, किन्तु जल प्रदूषण तथा वायु प्रदूषण के बढ़ते प्रभाव के कारण मिट्टी में भी प्रदूषण फैलता जा रहा है। मिट्टी मे फैले प्रदूषण को मृदा प्रदूषण की संज्ञा दी गयी है। मृदा प्रदूषण के कारण मिट्टी मृत हो जाती है जिसे बंजर भूमि भी कहा जा सकता है। मृदा प्रदूषण से मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बहुत ही कमजोर हो जाती है।
आधुनिक औद्यौगिक प्रक्रियाओं में उत्पादन तथा संचयन हेतु जल का उपयोग शीतलन कूलिंग के रूप में किया जाता है । शीतलन के कारण यह जल उश्मायुक्त होकर अत्यधिक गर्म रूप धारण कर लेता है और तालाब, नदी तथा समुद्र में फैलकर जालतंत्र के ताप को बिकराल रूप में बढ़ा देता है । परिणामस्वरूप जल के सामान्य ताप में अवांक्षनीय वृद्धि होने के कारण जलीय वनस्पतियों तथा जीव-जन्तुओं की जैविक क्रियाएँ बुरी तरह प्रभावित हो जाती हैं। इस प्रकार के तापीय प्रदूषण के कारण बाढ़,सूखा,तथा अकाल जैसे प्राकृतिक प्रकोपों में बढ़ोतरी होती है। समुद्री जल-स्तर में निरन्तर वृद्धि हो सकती है तथा ताप के निरन्तर प्रभाव से हिमनद पिघल सकते हैं जिससे जीव तथा धन सम्पदा को अपार क्षति पहुँच सकती है। तापीय प्रदूषण से जलवायु परिवर्तन की संभावनायें काफी बढ़ जाती है जिससे कृषि उत्पादन पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है।
ध्वनि हवा के माध्यम से तरंगों के रूप में निरन्तर चलायमान रहती है इसकी मन्द गति तो कर्ण-प्रिय होती है किन्तु ध्वनि की तीव्र कम्पन्नता हमारे स्वास्थ्य को हानिकारक रूप से प्रभावित करती है। ध्वनि तीव्रता की मानक इकाई ‘‘डेसीबल’’ होती है। प्रकृति ने मानवीय कर्ण के लिए ध्वनि सुगमतापूर्वक ग्रहण करने की एक निश्चित सीमा निर्धारित की है। इस निर्धारित सीमा से अधिक तीव्र ध्वनि को शोर की संज्ञा दी जाती है। ऐसी ध्वनि का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सामान्य तौर पर 120 डेसीबल तक की ध्वनि तीव्रता मानव कानों द्वारा सहन की जा सकती है, किन्तु इससे तेज आवाज कष्टप्रद हो जाती है। यह ध्वनि तीव्रता मानवीय स्नायु तन्त्र को प्रभावित करके अनिद्रा ,बहरापन तथा रक्तचाप इत्यादि रोगों से ग्रसित कर देती है। स्नायुविक रोगों से ग्रस्त होने के कारण मानसिक मन्दता संबन्धी प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिलता है।
कभी भारत सोने की चिड़िया और स्वर्ग का धरातल कहलाने वाला तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड़ में आन्नद और shaanti का स्थल था, किन्तु आज सषक्त प्रदूषण के कारण जल, थल और नभ का हर प्राणी shook एवं अषान्ति में जीवन व्यतीत कर रहा है। आज मानव अपने कर्मो में सुधार न लाकर प्रदूषण के कुप्रभावों से ग्रसित होकर एक दूसरे को doshi ठहरा रहा है या फिर उसे ‘‘दैवीय प्रकोप’’ मान कर अपनी सहन क्षमता स्वतः ही बढ़ाता जा रहा है।
आज पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने के लिए कई संस्थायें आगे आयी है। पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने के उद्देष्य से प्रत्येक Varsh माह जून की पांच तारीख को पूरे संसार में ‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’ मनाया जाता है। इस तारीख को विष्व के समस्त desh पर्यावरणीय प्रदूषण को कम करने के लिए पर्यावरण shikchhaa संबन्धी कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। ये आयोजन pradarshaniyon ,नुक्कड़ नाटकों,पद यात्राओं ,जन सभाओं,सेमिनारों लोक नृत्यों आदि के रूप में किये जाते हैं। विद्यालय स्तर पर छात्रों के लिए पोस्टर प्रतियोगिताएं/चित्रकला/वाद-विवाद/निबन्ध प्रतियोगिताएं तथा सकारात्मक प्रायोगिक कार्यषालाओं का भी आयोजन किया जाता है। भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मन्त्रालय के अन्र्तगत स्वतन्त्र रूप से कार्यरत पर्यावरण विभाग द्वारा विभिन्न puraskaaron का भी प्राविधान रखा गया है ,ताकि उक्त आयोजनों एवं पुरस्कारों से षिक्षा लेकर एवं सुपरिणामों से प्रेरित होकर समाज पर्यावरण के प्रति सजग रहे और ब्रह्माण्ड़ में फैलते प्रदूषण को उत्तरोतर रूप से घटाने में अपना अमूल्य सहयोग दे सके , फलस्वरूप समाज समस्त pradooshanon से मुक्त होकर स्वस्थ रूप धारण कर एक सषक्त एव जन कल्याणकारी वातावरण में जीवन व्यतीत करता हुआ स्वस्थ पर्यावरणीय समाज की संज्ञा से नवाजा जा सके।
3 टिप्पणियां:
इस चेतना को हमें जन जन तक पहुंचाना चाहिए।
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रूपसियों सजना संवरना छोड़ दो?
मंत्रो के द्वारा क्या-क्या चीज़ नहीं पैदा की जा सकती?
समाज को सचेत करती सुन्दर पोस्ट...साधुवाद !!
पर्यावरण प्रदूषण को रोकना बहुत जरुरी है. अपने तो इस पर बहुत अच्छा लिखा है.
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