बुधवार, 18 मई 2011

आम्रपाली

दिन था इतवार का
आराम के इजहार का
मीठे सपनो संग सो रहे थे
टूटे ख्यालों मे खो रहे थे
तभी ग्रहमंत्री ने झकझोर दिया था
हमको उठने का जोर दिया था

बोली भोर भयी सोते ही रहोगे
क्या सपनो मे खोते ही रहोगे
घर का सारा काम बकाया
दिनकर कितना ऊपर चढ़ आया

जाओ चाहे लौट नहाना
कुछ गेहूं हैं आज पिसाना
हर दिन तो दफतर जाते हो
पर छुट्टी मे घर मे घुस जाते हो
हमको चाहे न ले जाना
पर बच्चों को है आज घुमाना
इतना सुनकर हम उठ जागे
झटपट शौचालय को भागे

दैनिक क्रिया से निपट चुके तब
मीठी वाणी मे हमसे बोले सब
मिलकर जोर बजाओ ताली
अब जायेंगे हम आम्रपाली


यही सोच कर कदम बढ़े
पड़ोसी के घर जा ठहरे
सोचा कुछ उन्हे बता डालें
पर वहां नही दिखे चेहरे


आवाज सुनी आई बाला
जिसे देख पड़ा लब पर ताला
पूंछा उससे सब गये कहां
तुम तड़प रही हो यहां वहां
वह बोली होकर मतवाली
सब गये आज आम्रपाली
कह गये मुझे तुम रूको यहीं
घर की मांजो जूठी थाली

घर लौटे हम बनकर भोले
ग्रहणी से हंस कर बोले
जल्दी भी करो हे भाग्यवान
न छोड़ो चितवन की कमान

ऐसा भी न सिंगार करो
जो दर्पण भी जाये हार
कितने तो छाती पीटेंगे
कितने झट मारेंगे कटार


ग्रहणी मुस्का कर बोली
अब अजी रहो तुम चुपचाप
मेरे मन का तो कर न सके
नित देते नये.- नये संताप
ग्रहणी के ऐसे बचन सुने
झटपट होठों को सी डाला
हम अक्स देख भये मूर्क्षित
जैसे देखी हो “मधुशाला ”

टैम्पो से जैसे ही उतरे
झट से सम्मुख आया माली
चाहे ले लो गलहार पुष्प
चाहे लो कानो की बाली
बाबूजी बीबी यदि पहनेगीं
तो लगेंगी जैसी मधुबाला
“मधुबाला” भी शर्मायेंगी
लगेंगी कोई सुरबाला



यह सुनकर रणचन्डी प्रगटीं
हुंकार भरी ली अंगड़ाई
बोली जा पामर भाग अभी
क्या तेरी है शामत आई
बोली जा पामर भाग-भाग
नही ऐसी खैर बनाऊंगी
निज पावों की ऊँची सैंडिल को
तेरे सिर पर सैर कराऊंगी


आम्रपाली के फाटक पर
दर्शक दीर्घा की भीड़ भयी
लम्बी लाइनो को देख-देख
हमारी गति तो अति क्षीण भयी
मौके का फायदा पा करके
बहती गंगा मे हाथ धुले
दर्शक दीर्घा मे समाय गये
और अन्दर बिना टिकट निकले
अन्दर अचरज मे डूब गये


तेजी से फड़क उठा गुर्दा
पल भर के लिये हम भूल गये
कि हम जिन्दा हैं या मुर्दा
चहुँ ओर रंगीन फौहारे थे
सुर बालायें थीं भीग रहीं
रंगीन नजारा देख देख
थीं श्रीमती जी खीझ रहीं

एक सुन्दर सी बेन्च पर
लिया श्रीमती ने आसन
लगा रहे थे वहीं पर
एक मोटे जी पद्मासन



बोले देवी जी दूर रहो
मैं हूँ ध्यान योग मे डूबा
चंचल चितवन को कैद करो
मुझपर नजर रखे महबूबा
उतार वस्त्र जब तरण ताल मे
सब बच्चे लगे नहाने
उछल-उछल कर कूद-कूद कर
लगे खुद पर ही इठलाने
सोचा कहीं आसन ग्रहण करें
दें दें तन को आराम
स्थान मिला पर कहीं नही
हम खड़े रहें विश्राम


तभी हमारी कमर पर
हुआ जोर से वार
विकराल विकट सम वार से
निज कमर गई थी हार
एक मोटी मोहतरमा ने
किया था एक्सीडेन्ट
कमर के एक ही वार ने
भू पर कर दिया परमानेन्ट

वो बोली क्या अन्धे हो
या सूरदासी औलाद
हम सोच रहे थे खड़े-खड़े
ये कमर है या फौलाद
मै बोला मोहतरमा जी
तुम क्यों खाती हो तैस
दूर से तुम लगती हो हिरनी
और पास से लगती भैंस

मेरी पतली सी कमर पर
तुमने किया अटैक
दिल की धड़कन भी तीव्र हुई
पर हुआ न हार्ट अटैक



वो बोली इस तरह से
हमे न दीजिये गाली
एड़ी चोटी के जतन से
हम पहुंचे आम्रपाली

हमारे घर के कोने मे
जितनी थी फूटी थाली
ढेर लगा कर झटपट ही
कल्लू कबाड़ी को दे डाली

उन थलियों के विक्रय से
जो रकम थी हमने पाई
आम्रपाली घूमने की थी
हमने स्कीम बनायी


इसीलिये सजना के संग
मै पहुंची आम्रपाली
तुमने तो आज बढ़ा डाली
मेरे गालों की लाली


हमने सोचा इस दुनिया मे
हैं कैसे-कैसे शौकीन
”भारती“ कैसा भी समय रहे
पर रहते हैं रंगीन