मंगलवार, 13 जुलाई 2010

लेखनी का साधक

तेरी रचनाओं के शायद ,मिल न पायें रोज पाठक
फिर भी तुझको “लेखनी” का ही, बना रहना है साधक
चाहे जैसा हो “ सिकन्दर ”है नहीं पल का ठिकाना
चाहें दुर्गम ही सफर हो , राह चलता नित्य चालक
तेरी रचनाओं के शायद ,मिल न पायें रोज पाठक
वृक्षारोपण के समय मन ,फल-ग्रहण का भाव लाते
अन्य सारे भाव तजकर ,वृक्षारोपण को न जाते
दूसरे को दे शीतलता , ग्रहण करते रहे पावक
तेरी रचनाओं के शायद ,मिल न पायें रोज पाठक
एक निंदा हो गयी क्या , “ लेखनी ” को रोक बैठा
थम गया स्वर सामने का , कोई श्रोता टोक बैठा
बुलन्द कर ले लेखनी को , निखार ले सुर-गंग-धारा
आज न हो पाया तेरा , कल “ भारती ” संसार सारा
राह दिखलाता चला जा , पथिक न कोई भटक पाये
मंजिलें उनको मिली हैं ,जो धार को हैं मोड़ पाये
प्यार बरसाता चला जा , प्यासा रहे न कोई “चातक”
तेरी रचनाओं के शायद ,मिल न पायें रोज पाठक

5 टिप्‍पणियां:

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

भारती जी,
नमस्कार!
अजी क्यूँ ना मिलें पाठक! लीजिये हम आ गए! पढ़ भी लिया.....
कुछ सुझाव: 'वृक्षारोपण' सही है, वृक्षा-रोपड़ नहीं!
दुसरे के स्तान पर 'दूसरे' कर लीजिये!
जय हो!

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

और मेरी टिपण्णी में स्तान के स्थान पर 'स्थान' कर लीजिये....
हा हा हा!

संजय भास्‍कर ने कहा…

भारती जी,
नमस्कार!

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

KK Yadav ने कहा…

खूबसूरत अभिव्यक्तियाँ...बधाई.